Zindagi Zindagi
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युद्ध का शँखनाद
बज उठा मेरे अंतर्मन में
भीतर की दलदल
और
खिलते कमल के बीच
न जाने क्यों
धंसती गई गहराई में मै
जितनी भी कोशिश करती
फंसती गई उतनी ही
विषय विकारों के
कीचड़ में
खाती रही चोट
अपनों से
अश्रु धारा बहती रही
नैनो से
बुरी तरह से लथपथ
बंधी हुई
मोहपाश के बंधन में
मुरझाते रहे कमल
और
अंतर्द्व्न्द के महाभारत से
स्फुटित हुई
आत्मसात की शाखा
छोड़ पीछे दलदल
बन विजेता खिलने लगे
कमल ही कमल मेरे भीतर
और
लौट आई फिर से
मुस्कुराहट
मेरे
चेहरे पर
रेखा जोशी
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